Friday 18 December 2020

 मंज़िल अब तक मिली नहीं है

उषा की लाली सजी नहीं है, तमस की अग्नि बुझी नहीं है
दूर बहुत हैं अभी उजाले मंज़िल अब तक मिली नहीं है

झंझानिल से जा टकराना, हारे मन में जीत नहीं है  
नीची लहरों से उठता वो जीवन का संगीत नहीं है

आधी किस्मत से सिंचित हैं पूरी मेहनत की वो राहें
टूटे मन को जोड़ सके जो वो दुनिया की रीत नहीं हैं

अनथक राहों में चलता जा लहरें भी विपरीत नहीं है
मीठे शब्दों से जो खेले उधड़े मन का मीत नहीं  है

प्रलय सेज पर बिछ जाना आशा की लौ अभी बुझी नहीं है
देख गगन! सूरज की लाली अस्ताचल में छुपी नहीं है

अर्चि 



Saturday 25 April 2020

चलो चाय पर चलते हैं!

चलो चाय पर चलते हैं!




चलो चाय पर चलते हैं,
कुछ तेरी कुछ मेरी वाली बात अनकही कहते हैं,
चलो चाय पर चलते हैं

कुछ बिस्किट सी गोल कुरकुरी याद सुनहरी करते हैं,
चलो चाय पर चलते हैं

आओ सफ़ेद सी प्याली को कुछ लाल-गुलाबी करते हैं,
चलो चाय पर चलते हैं

जहाँ वही पुराने गुमटी वाले शाम को महफिल सजते हैं,
चलो चाय पर चलते हैं

ठंडी होने से पहले कुछ गहमा-गहमी करते हैं,
चलो चाय पर चलते हैं

खौलते सारे ख्याल आज फिर चूल्हे पर जलते हैं,
चलो चाय पर चलते हैं

आओ सुबह से बैठे-बैठे साँझ सिन्दूरी करते हैं,
चलो चाय पर चलते हैं

छोड़े से भी छूट न पाए चाय सी आदत बनते हैं,
चलो चाय पर चलते हैं!

Sunday 12 April 2020

उधेड़बुन

उधेड़बुन



कच्ची नींद की मानिंद हालत में
मैंने देखा, सो गयी है रात,
पर नहीं सोयी कुछ महत्वाकांक्षी आँखें
कुछ बेतरतीब किताबें,
जो फटे अखबारों की ज़िल्द में उकता रहीं हैं

मैंने देखा, सो गयी है रात,
पर नहीं सोयी कुछ ऊमस और गर्मी से अकुलाई आँखें
जो टूटे छप्पर से नीली आसमानी रोशनी को निहार रहीं हैं

मैंने देखा, सो गयी है रात,
पर नहीं सोए कुछ श्वान
जो मच्छरों से जूझते, चीखते-चिल्लाते
रखवाली करते आँखें भींच रहे हैं

मैंने देखा, सो गयी है रात,
पर नहीं सोयी कुछ हडबडाई माँएं
जो बच्चों का डब्बा बनाने उन्हें नींद से जगाने
सुबह की बाट जोह रहीं हैं

मैंने देखा, सो गयी है रात,
पर नहीं सोयी दूधिया रोशनी में नहाती रातरानी
जो मनभर बिखरा रही है भीनी खुशबू, इतरा रही है
और पूनम की रात मुस्कुरा रही है

मैंने देखा, सो गयी है रात,
पर नहीं सोयी कुछ लोरियां, थपकियाँ और कहानी की सफेद परियां
जो बच्चों को नींद सुलाने माँएं झपकियों में बसर कर रही हैं

और आख़िर में मैंने देखा कि चादर की सिलवटें,
मेज़ पर रखी अधूरी कविता, पंखे की तीन टाँगें भी
पौ फ़टने के इंतज़ार में सकुचा रहीं हैं

अर्चि





Wednesday 20 March 2019

ओ फगुनिया!



वो फागुन की उजली रातें थाप नगाड़े सुनती रातें
अब होली की बिसरी यादें वो सखियों संग बुनती बातें

महुआ झरते झरते पत्ते गीत फगुनिया गाती यादें
बाग-बाग बौरायी अमियाँ गली मोहल्ला रंगती यादें

होश संभाले हवा हो गयी करती अब रूमानी बातें
रंग बदलती चालें चलती जितने चेहरे उतनी बातें

टेसू की वो साँझ सिंदूरी पीली लाल गुलाबी यादें
फिर बचपन में खींच रही हैं कुछ पक्की कुछ कच्ची यादें

मन व्याकुल है तन व्याकुल है मंथर मंथर पास बुलाएँ
पर तन की अपनी सीमायें और मन की अपनी रेखाएं

चैत पुरबिया बुला रही है गूंज-गूंज किलकारी यादें
बुढा बरगद हवा बसन्ती चिड़ियों सी चह्काती बातें

लाल रंग दे मन में मुझको दूर सही तु रंग ले मुझको
जैसे राधा कृष्ण को रंग दे अबकी बिखर न पाए यादें

तन जो भीगा मन ना भीगा अब तो मन को खलती यादें
अब की इतनी गहरी रंग दे मन से उतर ना पाए यादें 

Friday 8 March 2019

सशक्ति की अभिव्यक्ति






जो मेरी सशक्ति की अनदेखी करते हो,
तो फिर क्यूँ मेरी अभिव्यक्ति किया करते हो?

लगता है मुझे इंसा से कुछ परे समझते हो,
इसलिए मुझे बरसों-बरस लिखा करते हो!

जब-जब देवियों की पूजा करते हो,
तब-तब मेरी अस्मत लूटा करते हो!

जब मेरी मांग की सिन्दूर में अपना अस्तित्व खोजा करते हो,
तब अपने पुरुषसत्ता का विरोधाभास तय किया करते हो !

जब मेरी ज़रा सी अदा पर इतना गिरा करते हो,
तो क्या खाक अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया करते हो!

जो अपनी औरत को घर में सहेजा करते हो,
फिर क्यूँ दूसरी औरतों पर आँखें तरेरा करते हो?

जब मुझसे नज़रें झूका चलने कहते हो,
फिर क्यूँ अपनी नज़रों से मेरे वक्षों को नापा करते हो?

मैं नर्मदा सी अनछुई,
तुम क्यूँ घाट-घाट फिरा करते हो?

लेकर ज़माने की तल्खियाँ,
क्यूँ मुझमें पाप धोया करते हो?

विधवा की सफेदी में भी,
रंगीनियत किया करते हो!

जब मनाते हो ये दिवस ये वार,
तब स्त्री को किस तराजू में तोला करते हो?

Saturday 2 March 2019

मैं



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मैं

हाँ, अपनी गलतियों से ही ज़िदा हूँ मैं ,
अपने हौसलों से उड़ता एक परिंदा हूँ मैं !

अक्सर ज़मीं पर रहकर आसमान देखता हूँ मैं,
आसमान कब मुझे देखेगा यही एक-एक दिन गिनता हूँ मैं !

भीड़ भरे रास्ते  में मेरा चलना मुमकिन नहीं,
इसलिए अपना रास्ता अलग चुनता हूँ मैं !

चोट देती अक्सर औरों की बातें,
इसलिए अपने दिल की बातें गौर से सुनता हूँ मैं !

मैं तुम नहीं, तुम मैं नहीं,
 इसलिए तुमसा कभी बनता नहीं हूँ मैं !

मन के ज़ख्मों की हल्दी नहीं होती,
यही मन ही मन में कहता हूँ मैं !

मन के हारे हैं, मन के जीते जीत,
यही बात सुनकर उलझन से सुलझता  हूँ मैं !

दफ़न ना कर मुझे डायरी के पिछले पन्नों में,
एक व्यक्तित्व हूँ मैं, कोई किस्सा नहीं हूँ मैं !

साधारण मनुष्य ही गढ़ते हैं इतिहास,
मुट्ठीभर असाधारण लोगों का हिस्सा नहीं हूँ मैं !



Saturday 29 December 2018

सर्द कलम से


तुम्हारे अस्त-व्यस्त ख़याल मिलते नहीं अब,
कुछ अव्यक्त सी अभिव्यक्तियाँ, निकलने को दरार ढूंढती हैं |
स्तब्ध सी देखती हैं सूनी सड़कें,
तेरे जाने का सबब बार-बार ढूंढती हैं |
गली-गली कूचे-कूचे दर-दर हर घर,  
 आँखें तेरा नाम सरेआम ढूंढती हैं |
गुंचे गुल्दाउदी के खिलते नहीं अब,
तितलियाँ अधखिले गुंचों में बहार ढूंढती हैं |
रेखाएं उकेरती बेजान सख्त हथेलियाँ,
फख्त तेरी गर्माहट का मिज़ाज़ ढूंढती हैं |
सीगड़ी के कोयले की सुलगती राख,
सुनहरे कोयले की मद्धम आँच ढूंढती हैं |
बेस्वाद सी पड़ी हैं हरी मटर और फलियाँ,
गरम लोहे की कढाई में अब करार ढूंढती हैं |
दिसंबर की सर्दियों की धुन्धलकी शाम में
‘अर्चि’ अपनी मंजिलें तमाम ढूंढती है |