Saturday 30 September 2017

औरत तू अजीब है












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अस्तित्व की तलाश ना कर,
तू थमी हुयी रफ़्तार की तरह
ज़िन्दगी भर अपने
वक्त का इंतज़ार कर |

नींद की स्याही में डूब कर 
जागने का प्रयास कर,
घर- बाहर की उलझन में ही
स्वयं का विकास कर | 

सवालों के जवाब बन,
पर कभी  तू सवाल ना कर ,
खुद से हो अपरीचित पर 
सबका परिचय स्वीकार कर |

मकान को घर बना कर, 
उस पर अनगिनत सपने सजा कर,
एक तख्ती भी नहीं अपने नाम की फिर भी
 कुछ माँगा नहीं , कुछ चाहा नहीं |
जमीं तेरी नहीं और आसमान की तलाश भी ना कर |
 
चौखट लाँघने की चाह ना कर,
या बेघर होने तैयार तू रह,
सिमटा ले जीवन, कूप के भीतर,
और 'अपने घर' की कभी चाह ना कर |

रिश्तों को तू संभ्हाले  रख,
परिवार की नब्ज़ थाम कर,
ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर,
पर निर्णय तेरा नहीं होगा कहीं,
इस बात को ठीक से याद रख |

माना के सब कुछ बदल रहा,
उस बदलाव की परवाह ना कर,
 तू औरत है, तू बद्लेगी ,
तो औरत ही तुझको रोकेगी,
इस सत्य को स्वीकार तू कर |

तू कल्पना के चित्रों में रंग भर,
पर यथार्थ की आशा ना कर,
यह जीवन तेरा पर डोर किसी की,
जैसी है तू, वैसी पहचान ना कर |

श्रृंगार भी कर, हो कर निर्भर,
हंसी, अश्रु वेदना के स्वर,
अक्सर होते हैं जब ये मुखर,
मन को रोक, मन  को थाम,
कुचल दो आकांक्षाएं तमाम,
इस तथ्य का विस्तार तू कर |

पहन कर अपनी सीमाएँ,
ओढ़ कर सामाजिक मर्यादाएं,
तू निरंतर चलती रह,
क्यूंकि पुरुष का यह समाज है,
इस बात का तू यशगान कर,
और अक्सर बेमौसम बारिश की तरह बरस जाया कर,
औरत कुछ अजीब होती हैं ये बात इस तरह सबको बतलाया कर |