Saturday 29 December 2018

सर्द कलम से


तुम्हारे अस्त-व्यस्त ख़याल मिलते नहीं अब,
कुछ अव्यक्त सी अभिव्यक्तियाँ, निकलने को दरार ढूंढती हैं |
स्तब्ध सी देखती हैं सूनी सड़कें,
तेरे जाने का सबब बार-बार ढूंढती हैं |
गली-गली कूचे-कूचे दर-दर हर घर,  
 आँखें तेरा नाम सरेआम ढूंढती हैं |
गुंचे गुल्दाउदी के खिलते नहीं अब,
तितलियाँ अधखिले गुंचों में बहार ढूंढती हैं |
रेखाएं उकेरती बेजान सख्त हथेलियाँ,
फख्त तेरी गर्माहट का मिज़ाज़ ढूंढती हैं |
सीगड़ी के कोयले की सुलगती राख,
सुनहरे कोयले की मद्धम आँच ढूंढती हैं |
बेस्वाद सी पड़ी हैं हरी मटर और फलियाँ,
गरम लोहे की कढाई में अब करार ढूंढती हैं |
दिसंबर की सर्दियों की धुन्धलकी शाम में
‘अर्चि’ अपनी मंजिलें तमाम ढूंढती है |



Tuesday 11 December 2018

माँ



माँ तेरी नरम थपकियाँ, गरम हथेलियाँ और मीठी लोरियां
मेरे अवचेतन मन में समायी सी हैं |
 
जब भी ,चोटिल होता है मन, बोझिल होता है तन
तब असमय ही गहराती है तुम्हारी याद जाड़े की किसी लम्बी रात की तरह |

आ चुकी है मुझमे कभी ना सकने वाली तटस्थता |
कुछ अधमरी जिज्ञासाएं नहीं पूछती अब जवाब |

तुम्हारे खाने के अधपके खयाल
चूल्हे कीआंच पर रखकर परिपक्व हो गये हैं |

तुम्हारी  डांट और झल्लाहट की गूँज
मिश्री में घुलनशील तरल की तरह कानों में हिल-मिल रहे हैं |

तुम्हारी कही हुयी अनसुनी बातों को भी सुन लिया मैंने
फिर भी कल पूरा सा और आज अधूरा सा है |

नहीं मिलती अब तुम्हारे होने से वह घर की रोशनी
किसी बड़े शहर की असंख्य बत्तियों के झिलमिलाहट में |

सूरज की किरणों का सीधा सा संपर्क है  अब मुझसे,
जो जगा देती हैं, जिम्मेदारियों को ज़ेहन में,
फिर लाख कोशिशों बाद नहीं आती बेफिक्री वाली नींद |

तुम्हारी मार्मिकता को क्षत-विक्षत करने की परिणति के नियतिवाद
को झेलना पीड़ादायी है माँ |

सम्पूर्ण जगतका अर्थ है माँ , तुम बिन सब कुछ व्यर्थ है माँ |