तुम्हारे अस्त-व्यस्त ख़याल मिलते नहीं अब,
कुछ अव्यक्त सी अभिव्यक्तियाँ, निकलने को दरार
ढूंढती हैं |
स्तब्ध सी देखती हैं सूनी सड़कें,
तेरे जाने का सबब बार-बार ढूंढती हैं |
गली-गली कूचे-कूचे दर-दर हर घर,
आँखें तेरा
नाम सरेआम ढूंढती हैं |
गुंचे गुल्दाउदी के खिलते नहीं अब,
तितलियाँ अधखिले गुंचों में बहार ढूंढती हैं |
रेखाएं उकेरती बेजान सख्त हथेलियाँ,
फख्त तेरी गर्माहट का मिज़ाज़ ढूंढती हैं |
सीगड़ी के कोयले की सुलगती राख,
सुनहरे कोयले की मद्धम आँच ढूंढती हैं |
बेस्वाद सी पड़ी हैं हरी मटर और फलियाँ,
गरम लोहे की कढाई में अब करार ढूंढती हैं |
दिसंबर की सर्दियों की धुन्धलकी शाम में
‘अर्चि’ अपनी मंजिलें तमाम ढूंढती है |