Monday 24 September 2018

एक संवेदनहीनअभिलाषा

मुक्त होना चाहती हूँ,
पल-पल मरती हुयी अपेक्षाओं को पुनर्जीवित
करने के प्रलोभन के मकडजाल से !

मार देना चाहती हूँ,
उन समस्त तैरती हुयी इच्छाओं की नद को
जो रोज़ किनारों पर फिर अनाहत सी मिलती हैं !

कुचल देना चाहती हूँ,
उन आहत होती भावनाओं के स्त्रोत को
जो समयावधि के थपेड़ों से अशक्त होती जा रही है !

त्याग देना चाहती हूँ,
उस स्त्री रुपी अंतरात्मा को
जो निरंतर सिंचित होती है भावातीत के संताप से !

समझना चाहती हूँ,
उस जीवन के गूढ़ रस को जो तपेदिक ज्वर की तरह तीव्र है
जो मुक्त है राग-द्वेष से !

छू लेना चाहती हूँ,
उस अति-आत्मविश्वासी नभ के मस्तक को
जो पृथ्वी-जनित परिकल्पनाओं से सदा परे है !

समाहित होना चाहती हूँ, 
उस कलम की गहन स्याही में
जो डूबकर लिखती है उमड़ते हुए लेश को !

नमन करना चाहती हूँ ,
उस कलम की लेखनी को जो शाश्वत सत्य है
जो विरह एवं ,व्याकुलता से परे है, और,
चिर संगिनी है, अनवरत चलने वाली,
कभी न पलक मुंदने वाली !